प्रेमचंद देश के पहले स्त्री और दलित विमर्शकार -किशन दाधीच
उदयपुर। राजस्थान साहित्य अकादमी अध्यक्ष डाॅ. दुलाराम सहारण के निर्देशन में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की जयंती पर साहित्य संगोष्ठी का आयोजन किया गया। मुख्य अतिथि डाॅ. सदाशिव श्रोत्रिय ने इस अवसर पर कहा कि प्रेमचंद जिस वर्ग-समाज का साहित्य रचते थे उस समाज और वर्ग के साथ हमें चलने की आवश्यकता है। प्रेमचंद के साहित्य में सम्पूर्ण मानवीय समाज के दर्शन होते है। आज के विषमता भरे वैविध्यपूर्ण समय में साहित्य के माध्यम से ही उसका समाधान खोजा जा सकता है।
कार्यक्रम के अध्यक्ष किशन दाधीच ने कहा कि प्रेमचंद का साहित्य समाज की रूढ़ियों, कर्म-काण्डों, अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाता है। प्रेमचंद का लेखन प्रतिरोध की ताकत बढ़ाता है और नए विचार प्रदान करता है। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद भारत के पहले स्त्री एवं दलित विमर्शकार थे। उन्होंने कहा कि प्रेमचंद ने लेखकों को संगठित किया और महात्मा गांधी के आह्वान पर राजकीय सेवा त्याग कर देश सेवा में संलग्न हो गए।
इसी प्रकार विशिष्ट अतिथि तराना परवीन ने कहा कि प्रेमचंद ने जिन स्त्री पात्रों को रचा था वैसी स्त्रियां हमारे अपने समय में प्रायः देखी जा सकती है। स्त्रियों के प्रति पितृसत्तात्मक व्यवहार जनतंत्र के अस्सी वर्षों बाद भी परिवर्तित नहीं हुआ है। इस अर्थ में प्रेमचंद का लेखन आज भी प्रासंगिक है। विशिष्ट वक्ता सरवत खान ने कहा कि प्रेमचंद के साहित्य में उस जमाने के दुख-दर्द, सियासत, समाज, संस्कृति, सभ्यता के दर्शन होते है। प्रेमचंद के उर्दू साहित्य के उदाहरण दे कर उन्होंने यह स्थापित किया कि हिन्दी एवं उर्दू दोनों भाषाएं भारतीय समाज की विलक्षण धाराएं है और प्रेमचंद ने दोनों धाराओं में पर्याप्त लेखन किया। के. के. शर्मा ने कहा स्त्री, दलित आदि विमर्श के बीज प्रेमचंद में ही मिलते है।
कार्यक्रम का संचालन डाॅ. हेमेन्द्र चण्डालिया ने किया। उन्होंने अपने संयोजकीय वक्तव्य में कहा कि महाजनी सभ्यता प्रेमचंद के जमाने से वर्तमान में अधिक जटिल है, शोषण उससे अधिक है। आदर्श समाजवाद की कल्पना को साकार करें, उस दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश करें। इसके बिना कोई समाज उन्नत नहीं हो सकता। किसी भी बड़े परिवर्तन के लिए संघर्ष के मोर्चें में उतरना होगा।