केस टाइटल: गोविंद राम बनाम विद्या देवी: O.14 R.5 CPC | न्यायालय डिक्री से पहले कभी भी मुद्दों को संशोधित या हटा सकते हैं : जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

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न्यायालय डिक्री से पहले कभी भी मुद्दों को संशोधित या हटा सकते हैं लेकिन उन्हें पक्षों को सुनना चाहिए और साक्ष्य की अनुमति देनी चाहिए: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

CPC के आदेश 14 नियम 5(1) और (2) के तहत न्यायिक विवेक के दायरे पर प्रकाश डालते हुए जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने दोहराया कि न्यायालयों के पास डिक्री पारित होने से पहले किसी भी चरण में मुद्दों को संशोधित करने जोड़ने या हटाने का अधिकार है।

जस्टिस जावेद इकबाल वानी की पीठ ने स्पष्ट किया कि इस तरह की शक्ति का प्रयोग करने के लिए पक्षों को साक्ष्य प्रस्तुत करने और संशोधित या हटाए गए मुद्दों पर सुनवाई का अवसर देना आवश्यक है, भले ही साक्ष्य पहले ही पेश किए जा चुके हों। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सहमति के बिना या पक्षों को सुने बिना किसी मुद्दे को हटाना प्राकृतिक न्याय के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन है।

उपरोक्त प्रावधानों के अधिदेश पर टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने कहा,

“ऐसी शक्ति का प्रयोग कार्यवाही शुरू होने के बाद बहस के चरण में या बहस के समापन के बाद भी किया जा सकता है जब किसी मुद्दे में संशोधन किया जाता है तो पक्षों को संशोधित मुद्दे पर साक्ष्य प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाना चाहिए, भले ही पक्षों ने ऐसे संशोधित मुद्दों पर साक्ष्य प्रस्तुत किए हों। इसलिए किसी मुद्दे को हटाने के संबंध में कानून की स्थिति समान है कि जब कोई न्यायालय कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी मुद्दे को हटाता है तो ऐसे मुद्दे को पक्षों की सहमति के बिना और पक्षों को सुने बिना हटाया या हटाया नहीं जाना चाहिए।”

पूरा मामला

यह मामला अपीलकर्ता गोविंद राम द्वारा प्रतिवादी 1 से 4 के पूर्ववर्ती सत पाल के विरुद्ध कठुआ में दो कनाल भूमि के संबंध में स्थायी निषेधाज्ञा के लिए दायर किए गए मुकदमे से उत्पन्न हुआ।

अपीलकर्ता ने भूमि के स्वामित्व और कब्जे का दावा करते हुए दावा किया कि 2007 के समझौतों के आधार पर प्रोफार्मा प्रतिवादियों को पांच मरला भूमि बेचने पर सहमति हुई थी।

प्रतिवादी ने इन दावों से इनकार करते हुए कहा कि उसने 1988 में विवादित भूमि का एक कनाल खरीदा था और तब से उस पर उसका कब्जा है।

ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ता के स्वामित्व और कब्जे तथा प्रतिवादी के खरीद दावे सहित छह मुद्दे तय किए। साक्ष्य प्रस्तुत किए जाने के बाद ट्रायल कोर्ट ने कब्जे के संबंध में एक मुद्दे को संशोधित किया और इसे फिर से तय किया। 2019 में मुकदमा खारिज कर दिया गया, जिसमें निष्कर्ष निकाला गया कि वादी कब्जा साबित करने में विफल रहा।

व्यथित होकर अपीलकर्ता ने कठुआ के प्रधान जिला न्यायाधीश के समक्ष अपील दायर की जिसने मार्च 2023 में ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।

अपीलीय अदालत ने कुछ मुद्दों को खारिज कर दिया यह निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी ने अपना कब्जा और खरीद साबित कर दी है। असंतुष्ट होकर अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि दोनों निचली अदालतों ने साक्ष्य या तर्क प्रस्तुत करने का अवसर दिए बिना मुद्दों को संशोधित करके और उन्हें हटाकर कानूनी सिद्धांतों का उल्लंघन किया। इसलिए निर्णय साक्ष्य अधिनियम और संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम का उल्लंघन करता है

न्यायालय की टिप्पणियां:

जस्टिस वानी ने मामले के प्रक्रियात्मक और मूल पहलुओं की गहन जांच की जिसमें सीपीसी के आदेश 14 नियम 5 के तहत दी गई शक्तियों पर ध्यान केंद्रित किया गया।

उन्होंने कहा कि प्रावधान अदालतों को अतिरिक्त मुद्दों को संशोधित करने या तैयार करने और गलत तरीके से तैयार किए गए मुद्दों को हटाने की अनुमति देता है।

उन्होंने कहा कि यह अधिकार व्यापक है और इसे मुकदमे के किसी भी चरण में डिक्री पारित होने से पहले कार्यवाही शुरू होने के बाद बहस के दौरान या बहस समाप्त होने के बाद भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि इस शक्ति का प्रयोग कुछ प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का पालन करना चाहिए।

न्यायालय ने आगे बताया कि जब किसी मुद्दे में संशोधन किया जाता है तो पक्षों को संशोधित मुद्दे पर साक्ष्य पेश करने और तर्क प्रस्तुत करने का अवसर दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह आवश्यकता सुनिश्चित करती है कि संशोधन से पक्षों को कोई पूर्वाग्रह न हो।

इसी तरह न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि कोई मुद्दा हटाया जाता है तो न्यायालय को पक्षों की सहमति लेनी चाहिए तथा उन्हें सुनवाई का अवसर देना चाहिए।

वर्तमान मामले में जस्टिस वानी ने पाया कि निचली अदालत ने तर्कों के समापन के पश्चात पहले मुद्दे को संशोधित करके इन सिद्धांतों का उल्लंघन किया है, बिना पक्षों को संशोधित मुद्दे पर विचार करने का अवसर दिए।

उन्होंने रेखांकित किया कि मुद्दे को साबित करने का दायित्व वादी पर डाला गया, जिससे इस तरह के संशोधन से पहले पक्षों को सुनना आवश्यक हो गया।

यह देखते हुए कि अपीलीय न्यायालय ने मुद्दों को हटाने के लिए पक्षों को कोई सुनवाई या अवसर प्रदान किए बिना मुद्दों को हटाकर प्रक्रियागत अनियमितताओं को और बढ़ा दिया जस्टिस वानी ने इस बात पर प्रकाश डाला कि यह चूक प्रक्रियागत निष्पक्षता और प्राकृतिक न्याय का घोर उल्लंघन है।

प्रक्रियागत खामियों का विश्लेषण करने के पश्चात, उच्च न्यायालय ने निचली अदालत और अपीलीय अदालत दोनों के निर्णयों और आदेशों को रद्द कर दिया। इस प्रकार इसने निर्देश दिया कि मुकदमे को मुद्दों को तैयार करने के चरण से शुरू करके पुनः सुनवाई के लिए निचली अदालत में वापस भेजा जाए।

केस टाइटल: गोविंद राम बनाम विद्या देवी

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