फंडिंग की अंधेरी दुनिया की कहानी ,राजनीतिक पार्टियों को कैसे मिलते हैं पैसे

Share:-

सुप्रीम कोर्ट में बुधवार यानी 4 अक्टूबर को मनीष सिसोदिया की जमानत याचिका पर सुनवाई चल रही थी। कोर्ट ने जांच एजेंसी से पूछा- शराब नीति से सीधे राजनीतिक पार्टी को फायदा हुआ, तो वह मामले में आरोपी क्यों नहीं है? इसके बाद ED ने कानूनी सलाह ली। अब दिल्ली शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी को भी आरोपी बनाया जा सकता है।

जांच एजेंसी और उपराज्यपाल के दावों के अनुसार शराब घोटाले से दिल्ली सरकार को 144.36 करोड़ के राजस्व का नुकसान हुआ है। आरोप है कि इसका इस्तेमाल आम आदमी पार्टी ने दूसरे राज्यों में चुनाव के लिए इस्तेमाल किया। अगर AAP को आरोपी बनाया गया तो राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग के बारे में भी बहस शुरू होगी।

देश में राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग के सभी तरीकों और उनके जरिए पार्टियों को मिलने वाली रकम का हिसाब-किताब करें तो साफ हो जाता है कि फंडिंग का यह काला खेल मोटे तौर पर 3 तरह से चल रहा है।

पहला- कैश, दूसरा- इलेक्टोरल बॉन्ड और तीसरा- विदेशी कंपनियों से लिया जाने वाला डोनेशन।

इनके अलावा कॉर्पोरेट्स के बनाए ट्रस्ट के जरिए मिलने वाली फंडिंग को सबसे आखिर में समझेंगे।

1. सबसे पहले कैश चंदे के गोरखधंधे को जानते हैं

कोई भी शख्स 2,000 रुपए से ज्यादा का चंदा कैश में नहीं दे सकता।

2,000 रुपए से ज्यादा का चंदा DD, चेक या इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर और इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए ही दे सकता है।

पहले यह लिमिट 20 हजार रुपए थी, इसे 2018 के एक फाइनेंस बिल के जरिए 2,000 रुपए कर दिया गया।
कोई शख्स अगर 2 हजार रुपए से ज्यादा का चंदा देता है तो रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल्स एक्ट (RPA) के तहत पार्टी को डोनर का नाम चुनाव आयोग को बताना होता है।

2 हजार से कम चंदा देने पर चंदा देने वाले का नाम बताने की जरूरत नहीं होती है।

दिलचस्प बात यह है कि अगर कोई शख्स इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए 20 हजार से ज्यादा का चंदा देता है तो उसका नाम गोपनीय रखा जाता है।

राजनीतिक पार्टियां ऐसे करती हैं कैश को हजम

मान लीजिए किसी शख्स ने किसी पार्टी को एक लाख रुपए कैश दिया। रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपुल्स एक्ट (RPA) के मुताबिक पार्टी को चंदा देने वाले इस शख्स का नाम चुनाव आयोग को बताना होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है।
दरअसल, पार्टियां इस कैश चंदे को 2-2 हजार रुपए अलग-अलग चंदे के रूप में दिखा देती हैं और इस तरह उन्हें चंदा देने वालों का नाम बताने की जरूरत नहीं पड़ती।
साफ है इस तरह कैश के रूप में मिलने वाली बड़ी से बड़ी रकम को पार्टियां 2-2 हजार रुपए में बांट कर पूरी तरह पचा लेती हैं।
मतलब यह कि 2018 में देने चंदा देने की सीमा को 20 हजार से घटाकर 2 हजार करने से कालेधन के खेल पर कोई असर नहीं पड़ा।
बदलाव सिर्फ इतना हुआ है कि पहले पार्टियों को बड़ी से बड़ी रकम को 20-20 हजार रुपए में बांट कर दिखाना होता था और अब 2-2 हजार रुपए में बांट कर हजम कर जाती हैं।
साफ है कि राजनीतिक दल ये छुपाने में कामयाब हैं कि नकदी के तौर पर मिला चंदा कहां से आया है और किसने दिया। इससे ब्लैक मनी को भी बढ़ावा मिल सकता है।

2. अब बात राजनीतिक चंदे के सबसे बड़े जरिए यानी इलेक्टोरल बॉन्ड की

क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड: इलेक्टोरल बॉन्ड एक बियरर चेक की तरह होता है। इस पर न तो बॉन्ड खरीदने वाले का नाम होता है और न ही उस पार्टी का नाम जिसे ये दिया जाना है।

कहां और कैसे मिलते हैं इलेक्टोरल बॉन्ड: आमतौर पर केंद्र सरकार जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10-10 दिन के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने का समय तय करती है। इसके लिए देश में 29 SBI ब्रांच तय की गई हैं। SBI की ये ज्यादातर ब्रांच प्रदेशों की राजधानी में हैं। केंद्र सरकार लोकसभा के चुनावी वर्ष में 30 दिन का अतिरिक्त समय भी दे सकती है।

कौन-कौन खरीद सकता है: कोई भी भारतीय नागरिक, हिंदू अविभाजित परिवार, कोई कंपनी, फर्म, लोगों की कोई एसोसिएशन और कोई एजेंसी। कोई व्यक्ति अकेले या दूसरों के साथ मिलकर भी बॉन्ड खरीद सकता है।

कितने-कितने रुपए के बॉन्ड होते हैं: बॉन्ड 5 तरह के होते हैं- 1 हजार, 10 हजार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ ।

कौन सी पार्टी इलेक्टोरल बॉन्ड ले सकती है:

इसकी दो शर्तें हैं।

पहली- रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपुल्स एक्ट के तहत रजिस्टर्ड पॉलिटिकल पार्टी ही इलेक्टोरल बॉन्ड ले सकती है।

दूसरी- इस पार्टी को ठीक इससे पहले हुए विधानसभा या लोकसभा चुनाव में कम से कम 1% वोट मिले हों। साफ है नई और छोटी पार्टियों के लिए यह घाटे का सौदा है।
कितने दिनों में कैश किया जा सकता है

बॉन्ड: जारी होने के 15 दिनों के भीतर ही बॉन्ड को कैश किया जा सकता है। ऐसा न करने पर यह पैसा प्रधानमंत्री राहत कोष में चला जाता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *