जब सभापति के आसन पर चढ़ गए सांसद:27 सालों से कैसे लगता रहा अड़ंगा

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8 मार्च 2010 की दोपहर। राज्यसभा में अफरा-तफरी मची थी। समाजवादी पार्टी के सांसद नंद किशोर यादव और कमाल अख्तर चेयरमैन हामिद अंसारी की टेबल पर चढ़ गए और माइक उखाड़ने की कोशिश की।

राष्ट्रीय जनता दल के राजनीति प्रसाद ने बिल की कॉपी फाड़कर चेयरमैन की तरफ उछाल दी। लोकजनशक्ति पार्टी के साबिर अली और निर्दलीय सांसद एजाज अली ने भी डिस्कशन रोकने की कोशिश की।
ये लोग महिला आरक्षण विधेयक का विरोध कर रहे थे। अगले दिन यानी 9 मार्च 2010 को हंगामा करने वाले सभी 7 सदस्यों को सस्पेंड कर दिया गया और मार्शल उन्हें पकड़कर बाहर ले गए। इसके बाद विधेयक पर वोटिंग हुई। इसके पक्ष में 186 मत पड़े और विरोध में सिर्फ 1 वोट। BSP वॉकआउट कर गई थी और TMC ने वोटिंग में हिस्सा ही नहीं लिया।

पहली बार प्रस्तावित होने के 14 साल बाद महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पारित हो गया। उसके बाद से 13 साल हो गए, ये बिल लोकसभा में पास नहीं हो सका। अब 2023 में मोदी सरकार ने भी इसे संसद में पेश कर दिया है। अगर ये पारित हो गया तो लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित हो जाएंगी।

यूनाइटेड फ्रंट सरकारः पहली कोशिश की, लेकिन सुझावों में अटकी

1996 में 13 दलों की गठबंधन वाली यूनाइडेट फ्रंट सरकार ने इस दिशा में पहली कोशिश की थी। उस समय के कानून मंत्री रमाकांत डी खलप ने संविधान में 81वें संशोधन के लिए संसद में एक बिल पेश किया। इसके तहत संविधान में दो नए कानून अनुच्छेद 330A और 332A जोड़ा जाना था।

जनता दल समेत सरकार को समर्थन देने वाली कई पार्टियों ने इस बिल का विरोध कर दिया। इस विरोध से सरकार घबरा गई। आखिरकार बिल को 31 सांसदों वाले एक संयुक्त समिति के पास विचार करने के लिए भेज दिया गया।

CPI नेता गीता मुखर्जी इस कमेटी की अध्यक्ष थीं। नीतीश कुमार, मीरा कुमार, ममता बनर्जी, सुमित्रा महाजन, शरद पवार, उमा भारती, राम गोपाल यादव, सुशील कुमार शिंदे जैसे सांसद इस कमेटी के सदस्य थे। इस कमेटी ने कई सुझाव दिए…

इस बिल में ज्यादा आपत्ति महिला आरक्षण को लेकर लिखे गए एक शब्द ‘एक तिहाई से कम नहीं’ को लेकर थी। उनका कहना था कि ये शब्द अस्पष्ट है। इस शब्द की व्याख्या अलग-अलग तरह से हो सकती है। इस शब्द को ‘एक तिहाई के जितना करीब संभव हो सके’ लिखा जाना चाहिए।
राज्यसभा और विधान परिषदों में महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए। इसके साथ ही अन्य पिछड़ा वर्ग यानी OBC को भी आरक्षण का उचित लाभ मिलना चाहिए।
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण लागू होने से लेकर सिर्फ 15 साल के लिए होने चाहिए। उसके बाद यह समीक्षा की जाए कि आगे महिलाओं को इस आरक्षण की जरूरत है या नहीं है।
जिन राज्यों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए तीन से कम सीटों पर आरक्षण लागू है, वहां इसे रोटेशन के आधार पर लागू किया जाए। मान लीजिए A,B,C तीन आरक्षित सीट हैं तो पहली बार A, फिर B और फिर अगली बार C सीट को महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाए।
संसद के तर्ज पर ही दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिए सीट आरक्षित करने की बात की।
बिल में SC, ST के साथ OBC महिलाओं को भी उचित सम्मान मिलना चाहिए। साथ ही उन्होंने आबादी के अनुपात में महिलाओं को आरक्षण देने की बात कही थी।
इस बिल के विरोध में सांसद शरद यादव ने कहा था- ‘कौन महिला है, कौन नहीं है। केवल छोटे बाल रखने वाली महिलाओं को इसका लाभ नहीं मिलने देंगे।’ यूनाइटेड फ्रंट सरकार अपने ही समर्थक दलों के इस विरोध की वजह से इस बिल को पास नहीं करा पाई।

वाजपेयी सरकार: कई बार कोशिशें की, लेकिन सफल नहीं हुए

1998 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में NDA सरकार ने सदन से इस बिल को पास कराने की कोशिश कई बार की थी। पहली बार 13 जुलाई 1998 में कानून मंत्री एम थंबी दुरई ने लोकसभा में इस बिल को पेश किया था। जिसका राजद, सपा समेत कई दलों ने विरोध किया। राजद सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव ने स्पीकर जीएमसी बालयोगी के हाथ से बिल की कॉपी को छीनकर फाड़ दिया था।

बिहार सरकार में अभी के मंत्री सुरेंद्र प्रसाद यादव ने इस बिल के फाड़ने पर कहा था कि बीआर अंबेडकर ने उनके सपने में आकर ऐसा करने के लिए कहा था। इस बिल को 14 जुलाई को एक बार फिर से लोकसभा में पेश करने की कोशिश हुई। हालांकि राजनीतिक दलों के हंगामे और सहमति नहीं बन पाने की वजह से ऐसा संभव नहीं हो सका।

11 दिसंबर 1998 को फिर लोकसभा में इस बिल को पेश करने की कोशिश हुई। तब सपा सांसद दरोगा प्रसाद स्पीकर के पोडियम तक पहुंच गए। इस वक्त धक्का-मुक्की की स्थिति बन गई। आखिरकार सरकार ने एक बार फिर अपना हाथ पीछे खींच लिया। 23 दिसंबर 1998 को आखिरकार सदन में इस बिल को पेश करने में सरकार कामयाब रही। इस समय भी सपा, बसपा समेत कई दलों ने जोरदार विरोध दर्ज कराया। NDA सरकार को समर्थन देने वाली नीतीश कुमार की पार्टी JDU ने एक बार फिर विरोध किया। एक बार फिर पहले की तरह ये बिल सदन में पास नहीं हो सका।

अटल बिहारी सरकार में उस समय के कानून मंत्री राम जेठमलानी ने 23 दिसंबर 1999 को एक बार फिर से सदन में इस बिल को पेश किया। एक बार फिर सपा, बसपा और राजद के सांसदों ने इस बिल का जोरदार विरोध किया।

वाजपेयी सरकार ने इसके बाद तीन बार – 2000, 2002 और 2003 में इस विधेयक को आगे कानून बनाने की कोशिश की। हालांकि हर बार की तरह इन सभी मौकों पर अटल सरकार को कामयाबी नहीं मिली। जुलाई 2003 में भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने इस मुद्दे पर आम सहमति बनाने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने एक सर्वदलीय बैठक बुलाई, लेकिन असफल रहे। इस वजह से विधेयक पास नहीं हो पाया।

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