न्याय व्यवस्था को ठीक करना जरूरी

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काशी—मथुरा मंदिर मामले में हिन्दू पक्ष के अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने उदयपुर में कहा
उदयपुर, 23 अप्रैल(ब्यूरो)। सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता और काशी-मथुरा मंदिर मामले में हिन्दू पक्ष के अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन का कहना है कि न्याय व्यवस्था से भरोसा नहीं उठाना है, बल्कि न्याय व्यवस्था को ठीक करना है। सिस्टम में खामी के तर्क को लेकर कोर्ट नहीं जाने की बात बेमानी है, यह समाज की जिम्मेदारी है कि कोर्ट अगर ठीक काम नहीं कर रहा है तो उस व्यवस्था को ठीक करने के लिए समाज जागरूक हो।
राष्ट्र मंथन समूह की ओर से उदयपुर में आयोजित कार्यक्रम में आए एडवोकेट विष्णु शंकर ने रविवार को पत्रकारों से हुई बातचीत में कहा कि देश की न्याय व्यवस्था में खामी के तर्क को लेकर कोर्ट नहीं जाने की बात बेमानी है। यह न्याय व्यवस्था भी हमारी है और यदि इसे ठीक करने की जरूरत है तो यह जिम्मेदारी भी हमारी ही है।

लोकतंत्र में समाज के पास अपनी बात रखने अधिकार
सुप्रीम कोर्ट के वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा कि लोकतंत्र में समाज के पास अपनी बात रखने का भी पूर्ण अधिकार है। जहां तक कोर्ट की अवमानना की बात है, कोर्ट हेल्दी क्रिटिसिज्म को स्वीकार करता है, अभद्रता और अमर्यादित भाषा तो कहीं भी स्वीकार नहीं की जा सकती। आप अपनी बात को सलीके से प्रस्तुत करें, आपकी बात भी सुनी जाएगी, चाहे वह कोर्ट के किसी निर्णय के विपक्ष में ही क्यों ना हो। ओवैसी भी बार-बार कहते हैं कि वे तो अयोध्या में मस्जिद ही कहेंगे, यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर सहमति नहीं है, लेकिन यह अवमानना भी नहीं है। उन्होंने कहा कि आम आदमी को अपनी बात रखने का अधिकार सिर्फ कोर्ट में है। वह संसद में अपनी बात रखने नहीं जा सकता। इस प्रक्रिया में भी यदि उसे राहत नहीं मिल पा रही है तो देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति को समझा जा सकता है।
इस देश में न्याय कम और निर्णय ज्यादा होते हैं

जैन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई भी कह चुके हैं कि देश में न्याय व्यवस्था चरमरा चुकी है। हम निर्णय की बात कर रहे हैं, लेकिन यहां तो निर्णय भी नहीं हो रहे हैं। चाहे क्रिमिनल केस की बात करें या सिविल केस की, इतनी लंबी कतार है कि वह पूरी ही नहीं होती दिखाई दे रही। इससे भी बड़ी बात हमारे समाज के मूल मुद्दों की है जिन पर न तो न्याय होता है, ना ही निर्णय होता है। किसी मुद्दे को जब हम शोध करके कोर्ट में ले जाते हैं तो उसको इतना पेंडिंग रखा जाता है कि वह मुद्दा ही मर जाता है। इससे मंशा पर सवाल पैदा होते हैं।

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