भारत सरकार के अधीन मंदिर

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भारत में कई मंदिर सरकार के अधीन हैं जो धार्मिक और पौराणिक महत्त्व के साथ एक पर्यटक स्थल के रूप में भी जाने जाते हैं।

उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

१-श्री तिरुमला तिरुपति देवस्थानम, तिरुपति, आंध्र प्रदेश
२-वैष्णो देवी मंदिर, कटरा, जम्मू और कश्मीर
३-सोमनाथ मंदिर, सोमनाथ, गुजरात
४-केदारनाथ मंदिर, केदारनाथ, उत्तराखंड
५-बाबा वैद्यनाथ धाम, देवघर, झारखंड
६-बद्रीनाथ मंदिर, बद्रीनाथ, उत्तराखंड
७-जगन्नाथ मंदिर, पुरी, ओडिशा
८-महाकालेश्वर मंदिर, उज्जैन, मध्य प्रदेश

इनमें से कुछ मंदिर धार्मिक निकायों जैसे कि तिरुमला तिरुपति देवस्थानम, वैष्णो देवी मंदिर, जगन्नाथ मंदिर आदि भारतीय सरकार के अधीन हैं।
इसके अलावा कुछ सरकारी निकायों द्वारा संचालित भी होते हैं जैसे कि महाकालेश्वर मंदिर।

क्यों मंदिरों में दान में आया करोड़ों रूपया सरकार ले लेती है लेकिन उसे कहाँ खर्च किया इसकी जानकारी जनता को नहीं देती?

पहली बात तो यह है की यह पैसा हिंदुओं की आस्था के विपरीत सरकार के खजाने में शामिल कर लिया जाता है, उस कानून के तहत जो एक ईसाई सरकार ने बनाया था और कांग्रेसी सरकारों ने जारी रखा जिसे वर्तमान सरकार भी बदलने की हिम्मत नही कर पा रही. विडंबना ये है की परोक्ष तौर पर हिंदुओं द्वारा भगवान के नाम पर दिया गया ये दान मुस्लिम मदरसों को मदद और मौलानाओं के वेतन पर या चर्च को दी जाने सहायता पर भी खर्च होता है. अब अगर इसकी जानकारी एक वेब पोर्टल पर सरकार डाल दे तो क्या हंगामा होगा आप अंदाज लगा सकते हैं, इसलिए यह मामला गुपचुप चलता रहा है और चलता रहेगा जब तक जागृत हिंदू समाज इसके खिलाफ आवाज ना उठाये

हिन्दू धर्म दान ऐक्ट 1951 के ज़रिये कांग्रेस सरकार ने राज्य सरकारों को यह अधिकार दे दिया वो बिना कोई कारण बताये किसी भी मंदिर को अपने अधीन कर सकती हैं, 1951 से बड़े मंदिरो के चढ़ावे की रक़म का 80 प्रतिसत ग़ैर हिन्दू कार्यों पर खर्च हो रहा हैं । पाण्डे , पुजारी का खर्च ही मन्दिर के पास रहने देती है सरकारें , बाक़ी चढ़ावा अपनी मर्ज़ी से सरकारें खर्च कर रहीं । हिन्दू मंदिरो की गोलक पर भी सरकार की बुरी नज़र . कैसा देश है भारत .

भारतीय सरकारें और नेता , चाहे वह राज्य हो या केंद्र अथवा किसी भी पार्टी की आदतन चोर हैं और जनता के मुद्दों को ले कर बेहद असुरक्षित भी ।

दूसरे बहुसंख्यक लोग जिस धर्म से आते हैं उन लोगों की मुआशरे के लोगों की न्यूसेंस वैल्यू बेहद कम है । लिहाजा सरकार पार्टियां और नेता उस वर्ग के लोगों के हितों को ले कर उदासीन हैं ।

वहीं अल्पसंख्यकों को देखिए अपनी रिलीजियस आइडेंटिटी और प्रिफरेंस को ले कर कितने मुखर रहते है ( फिर मुद्दा चाहे कितना बे सिर पैर के या मूर्खतापूर्ण ही क्यों न हों , या दूसरों को उससे चाहे कितनी ही असुविधा क्यों न हो ) और अपनी मांग ( नाजायज ) पर कायम रहते हैं ( बकायदा हवाला दे कर ) ।

शाहीन बाग , हिजाब विवाद सीएए के मुद्दों पर आंदोलन या प्रदर्शन देख लीजिए ।

बचपन में कहावत पढ़ी थी “खड़े का खालसा अपना काम करवा लेता है” याने के सत्ता धारियों को दबाव में रखकर कोई भी अपना काम निकलवा लेता है ।

अब उत्तराखंड में चारधाम देवस्थान बोर्ड का मामला ही देख लीजिए , लोग अपनी मांग पर कायम रहे इसलिए सरकार को झुकना पड़ा , जो उत्तराखंड में हो सकता है वह मुंबई में क्यों नहीं ? बस सही ढंग से मांग उठानी चाहिए और उस पर अड़े रहना चाहिए ।

देश संविधान से चलता है बहुविधान या नवविधान से नहीं । हां , क्षेत्रीय पार्टियां अपने हित देख कर चूं चूं के मुरब्बा की तर्ज पर बेमेल गठबंधन बनाएं और खुद की खुद के नेताओं की जय जय कार करवाएं तो वहां सरकार की प्राथमिकताएं अलग बन जाती हैं ।

जनता से जुड़े मुद्दों की बजाए जद्दोजहद इस बात की चलती है कि सरकार किस तरह कायम रखी जाए और बहुमत बनाए रखने के लिए क्या कदम उठाए जाएं ।

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